Wednesday, April 27, 2005

dinkar: samar sesh hai

How can i neglect dinkar one of my favoraties.
the grand old man of chayya vad.
read this excerpt of his famous poem to undersand why Dinkar
is immortal in Hindi poetry.

समर शेष है

वह सँसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीँ किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अँबर तिमिर वरण है |
देख जहाँ क द्रश्य आज भी अन्तस्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह मेँ अटका कहाँ स्वराज ?

अटका कहाँ स्वराज ? बोल दिल्ली! तु क्या कह्ती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्योँ सहती है ?
सबके भाग्य दबा रखे हैँ किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुइ बंदनी बता किस घर में

समर शेष है यह प्रकाश बंदीग्रह से छूटेगा,
और नहीँ तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा

समर शेष है उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैँ
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अडे रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

समर शेष है जनगंगा को खुल कर लह राने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उस को तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमी नहिं छोडेंगे

समर शेष है चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं |
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं |
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है |

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोइ दुष्काण्ड रचें ना !
सावधान हो खडी देश भर में गांधी की सेना |
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे|
मंदिर औ मस्जिद दोनो पर एक तार बांधो रे |

समर शेष है नहिं पाप का भागी केवल व्याघ्र ,
जो तटस्थ हैं उनका भि समय लिखेगा अपराध |

Monday, April 25, 2005

sumitra nanadan pant

विजय

'उत्तरा' से

मैं चिर श्रद्धा लेकर आई
वह साध बनी प्रिय परिचय में,
मैं भक्ति हृदय में भर लाई,
वह प्रीति बनी उर परिणय में।

जिज्ञासा से था आकुल मन
वह मिटी, हुई कब तन्मय मैं,
विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण
आधार पा गई निश्चय मैं !

प्राणों की तृष्णा हुई लीन
स्वप्नों के गोपन संचय में
संशय भय मोह विषाद हीन
लज्जा करुणा में निर्भय मैं !

लज्जा जाने कब बनी मान,
अधिकार मिला कब अनुनय में
पूजन आराधन बने गान
कैसे, कब? करती विस्मय मैं !

उर करुणा के हित था कातर
सम्मान पा गई अक्षय मैं,
पापों अभिशापों की थी घर
वरदान बनी मंगलमय मैं !

बाधा-विरोध अनुकूल बने
Aतर्चेतन अरुणोदय में,
पथ भूल विहँस मृदु फूल बने
मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में।



- सुमित्रानंदन पंत

Sunday, April 24, 2005

dono or prem palta hai: mathili sharan gupt

maithli sahran gupt was the ambassador of khadi boli.
he chose khadi boli for his creations as against the popular
braj bhasha.
his famous compostions like 'nar ho na niraah karo man ko'
and 'mujhe phool mat maro' took nation by storm in those days

i present one of my much loved and very
poignant poem.

read it carefully and if posssible over and over again
to fathom the emotive and poetic depths depicted.

दोनो ओर प्रेम पलता है -

दोनो ओर प्रेम पलता है
सखि पतँग भी जलता है
हा दीपक भी जलता है

सीस हिला कर दीपक कह्ता
बन्धु वृथा हि तू क्योँ दह्ता है
पर पतँग पड के ही रह्ता
कितनी विव्हलता है
-दोनो ओर प्रेम पलता है

बचकर हाय पतँग मरे क्या?
प्रणय छोड कर प्राण धरे क्या?
जले नहीँ तो मरा करेँ क्या ?
क्या ये असफ़लता है ?

--दोनो ओर प्रेम पलता है

कह्ता है पतँग मन मारे
तुम महान पर मैँ लघु प्यारे
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है
--दोनो ओर प्रेम पलता है

दीपक के जलने मे आली
फिर भी है जीवन की लाली
किन्तु पतँग कि भाग्य लिपी काली
किसका वश चलता है ?
--दोनो ओर प्रेम पलता है

जगती वणिग्वृत्ति है रखती
उसे चाह्ती जिसेसे चखती
काम नही परिणाम निरखती
मुझे ही खलता है

दोनो ओर प्रेम पलता है
सखि पतँग भी जलता है
हा दीपक भी जलता है

sahir:mast najar

another one from sahir ludhiyanavi
dedicate this post to bhaaluu
(i never wanted to use the alias).
:)

तुम्हारी मस्त नज़र अगर इधर नहीं होती
नशे में चूर फ़िज़ा इस कदर नहीं होती
तुम्हीं को देखने की दिल में आरज़ूएं हैं
तम्हारे आगे ही और ऊँची नज़र नहीं होती
ख़्हफ़ा न होना अगर बड़ के थाम लूँ दामन
ये दिल फ़रेब ख़्हता जान कर नहीं होती
तुम्हारे आने तलक हम को होश रहता है
फिर उसके बाद हमें कुछ ख़्हबर नहीं होती
-साहिर

Saturday, April 23, 2005

'सुख का गोरी' sukh kaa gori

what i like about salim ahemad 'jakhmi' is his robert forst like
style of saying complex things in simple words.
his language very simple,neither high flying hindi or urdu

presenting his very famous composition 'सुख का गोरी '
read the later satnzaas very carefully.


सुख का गोरी नाम न लेना
दुख हि दुख है गाँव मे,
प्रीत का काँटा मन मे चुभेगा
खेत का काँटा पाँव मे १

देख मुसाफ़िर मित्र खडे हैँ
छतरी ताने गावोँ मे,
पीपल बरगद नीम बुलायेँ
हाथ हिला कर छाँव मे २

माटी के हम दीप जरा से
ज्योत हमारी कितनी देर,
घात मे बाहर घोर अँधेरे
घुस आये कुटियाओँ मे ३

साँस खटकती फाँस के जैसी
पल भर मन को चैन नहीँ ,
नीरस नीरस जीवन सारा
आग लगे आशाओँ मे ४

कृष्ण की पूजा श्याम कि भक्ति
मुरली-धर की मतवाली ,
राधा जैसे भाग हैँ किसके
बिन ब्याही कन्याओँ मे ५

इस युग के बेढब लोगोँ से
क्या ढब की बत करे कोई,
चतुराइ से चिन्ता मे फसेँ हैँ
बुद्धि से बाधाओँ मे ६

तन का तिनका जीवन तट पर
कबतक 'जख्मी' ठहरेगा
लहर लहर मे छीना झपटी
होड लगी घटनाओँ मे ७

-वसुधा से साभार

Thursday, April 21, 2005

adrash prem-bacchan

apart from madhushaala for which hari vansh rai bachhan is
renouned.
bacchan has also composed some very touching poems.
presenting one such piece of beautifull poetry: adarsh prem

for viewing hindi font
kindly chnage encoding of ur browser to unicode(UTF)for IE users this can be done by going to View-> Encoding-> UTF-8

in case ur browser doesnt support unicode the intrans is coming soon

आदर्श प्रेम
प्यार किसी को करना लेकिन
कह्कर उसे बताना क्या
अपने को अर्पण करना पर
और को अपनाना क्या

गुण का ग्राहक बनना लेकिन
गाकर उसे सुनाना क्या
मन के कल्पित भावोँ से
औरोँ को भ्रम मे लाना क्या

ले लेना सुगन्ध सुमनोँ की
तोड उन्हेँ मुरझाना क्या
प्रेम हार पहनाना लेकिन
प्रेम पाश फैलाना क्या
note the last stanza

त्याग अँक मे पले प्रेम शिशु
उनमे स्वार्थ बताना क्या
देकर ह्रिदय ह्रिदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या
-बच्चन

life: khalil gibran

when it comes to free verse and philosophy
no one does it better than gibran
the undermentioned post bears a testimony to the fact

I said to my friend:
"See her leaning over his arm?
Yesterday she leaned over my arm."
And he said:
"Tomorrow she will lean over mine."

And I said:
"See her sitting at his side;
And yesterday she sat at my side."
And he said:
"Tomorrow she will sit at mine."

And I said:
"Don't you see her drinking from his cup?
And yesterday she sipped from mine."
And he said:
"Tomorrow she will drink from mine."

And I said:
"Look how she glances at him with eyes full of Love!
and with just such love, yesterday she glanced at me."
And he said:
"Tomorrow she will glance at me, likewise."

And I said:
"Listen to her whispering songs of love in his ears;
And yesterday she whispered the same songs in mine."
And he said:
"Tomorrow she will whisper them in mine."

And I said:
"Look at her embracing him; and yesterday she embraced me."
And he said:
"Tomorrow she will lie in my arms."

And I said:
"What a strange woman she is!!"
And he said:
"She is life!"
-- Khalil Gibran

courtsey:babhy

Wednesday, April 20, 2005

farewell

the moment is finally here: again from one of my favoraites sahir
जीवन के सफ़र मेँ राही
मिलते हैँ बिछड जाने को
और दे जाते हैँ यादेँ
तनहाई मे तडपाने को

ये रूप की दौलत वाले
कब सुनते हैँ दिल के नाले
तकदीर न बस मे डाले
इनके किसी दीवाने को

जो इनकी नजर से ख़ेले
दुख पाये मुसीबत झेले
फिरते हैँ ये सब अलबले
दिल ले के मुकर जाने को

दिल ले के दगा देते हैँ
एक रोग लगा देते हैँ
हँस हँस के जला देते हैँ
ये हुस्न के परवाने को

अब साथ न गुजरेँगे हम
लेकिन ये फ़िजा रातोँ की
दौहराया करेगी हरदम
इस प्यार के अफ़साने को

-जीवन के सफ़र मेँ राही
मिलते हैँ बिचड जाने को
और दे जाते हैँ यादेँ
तनहाई मे तडपाने को

(for those who dont have XP(unicode support) the itrans version will do the needfull)

ITRANS:

jiivan ke safar me.n raahii,
milate hai.n bichha.D jaane ko
aur de jaate hai.n yaade.n,
tanahaaii me.n ta.Dapaane ko


ye ruup kii daulata vaale,
kab sunate hai.n dil ke naale
taqadiir na bas me.n Daale,
inake kisii diivaane ko


jo inakii nazar se khele,
dukh paae musiibat jhele
phirate hai.n ye sab alabele,
dil leke mukar jaane ko

dil leke dagaa dete hai.n,
ik rog lagaa dete hai.n
ha.Ns ha.Ns ke jalaa dete hai.n,
ye husn ke paravaane ko


ab saath na guzare.nge ham,
lekin ye fizaa raato.n kii
doharaayaa karegii haradam,
is pyaar ke afasaane ko

jiivan ke safar me.n raahii,
milate hai.n bichha.D jaane ko
aur de jaate hai.n yaade.n,
tanahaaii me.n ta.Dapaane ko

Tuesday, April 19, 2005

हिमाद्रि तुँग श्रिंग सी

one of my much loved poem: by none other than jaisha.nkar parasad

हिमद्रि तुँग श्रगँ से
प्रबुद्ध शुद्ध भाराती
स्व्यँ प्रभा समुज्ज्वला
स्वतन्त्रता पुकारती

अमर्त्य वीर पुत्र हो
द्र्ढ प्रतिग्य सोच लो
प्रशस्त पुन्य पन्थ है
बढे चलो बढे चलो !

असँख्य किर्ति रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्य दाह सी
सपूत मातृभूमी के
रुको न शूर साहसी

अराति सैन्य सीन्धु मेँ
सुबाडबग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी बनो
बडे चलो बदे चलो

Monday, April 18, 2005

sankhya coffee

In the six systems of Indian philosophy I am particularly impressed by the ‘sankhya’ marg. Sankya was propounded by Kapil Muni(the same kapil whom Krishna in gita eulogizes and says amongst the devrishis I am narad maong the siddhas I am kapil….)
Sankya is a logical methodology of reaching conclusions on metaphysical subjects.

I present a sankhyified explanation of recent incident.

Amit, I and gabber were on our late night stroll and to kill time we decided to have cup of coffee. No choice comes with a responsibility. Here the responsibility was the plastic cup.
The choice however also leads to further choices and amit and I made the choice of keeping the cup in our hand till we find a suitable place to dispose that off. Gabbar however had a different preference, very Indian as he is, he threw the cup immediately, Amit blasted off: “I did’nt expect this from you”.

Contritely gabber said, I am sorry but there isn’t a waste bin anywhere. To which amit retorted what do u think lies ten steps ahead of you. Gabbar was crestfallen. He shot back with the excuse that the cup was sticky and to hold that stick plastic is nasty and blah blah blah.

I finally cud’nt bear this blabber. Took gabbars side and said you should do what you want to do. Gabbar exploded u mean u support littering?
This was the last thing I meant. I said if that’s what u inferred so be
You identify yourselves with the body so the sticky cup becomes troublesome, if your consciousness grows and you identify yourselves with the campus then the campus will become ur abode and then the sticky cup will no longer be thrown aside but will find its fated place courtesy u.
You should really do what you want to do but first you should find who are you?

‘Kasyam koham kut aaytam
Ka main janani ko main tatam’
-from Bhaj Govindam

Who I am where have I come from
Who is my mother who is my fathere


-ashu