Tuesday, December 20, 2005

badal ko ghirte dekha hai

अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों ले आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर बिसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

कहाँ गय धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

courtsey jaya jha

10 comments:

  1. Hey thanks a lot man! Missed this poem for a very long time! Had it in school... Thanks for publishing in hindi :)

    ReplyDelete
  2. I have loved this poem ever since I read it in high-school.....any adjective might just belittle the rythm and the absolute beauty contained in each word.
    Thanks for posting it.

    ReplyDelete
  3. i love this poem heartly

    ReplyDelete
  4. thanks a lot man i was looking for this poem thanks once again

    ReplyDelete
  5. great work jhaji, hamra bachhpan yaad taja kay delou
    Amish

    ReplyDelete
  6. hume bhi apne school ki yad aa gayi jaha ye padha karte the aur humne ise bakhubi yad kiya tha aur bad me bhool gaye lekin ab hum fir se ise yaha se padhkar yad kar lenge..
    dhanyavad..

    ReplyDelete
  7. Anonymous10:44 PM

    badal ko ghirte dekha h plz mujhe koi ise poem ke summery batao plz its urgent plz hrlp me

    ReplyDelete
  8. deepak10:44 PM

    badal ko ghirte dekha h plz mujhe koi ise poem ke summery batao plz its urgent plz hrlp me

    ReplyDelete
  9. Anonymous10:27 AM

    great poem by Nagarjun

    ReplyDelete
  10. Anonymous1:43 AM

    loved it .. great poem..one of the best i ever have read.. and Yes YATRI has still not rested,, the yatra continues in some other part of universe but the imprints here on earth will never get faded.

    ReplyDelete